16 महाजनपदों में से एक मगध का एक साम्राज्य के रूप में आविर्भाव हर्यक वंश के समय हुआ और कालांतर में मगध ने प्राय समस्त उत्तर भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
मौर्य वंश की स्थापना -
ईसा पूर्व 326 ईसवी के लगभग मगध के राज सिंहासन पर नंद वंश का एक विलासी राजा घनानंद सिंहासन रूढ था । इस समय पश्चिमोत्तर भारत सिकंदर से आक्रांत था। प्रजा अपने राजा के अत्याचारों से पीड़ित भी थी। असहाय कर भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। इस परिस्थिति में मगध को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करें और उसे एक सूत्र में बांधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करें। शीघ्र ही भारत के राजनीतिक नभमंडल पर कौटिल्य का शिष्य चंद्रगुप्त प्रकट हुआ तथा एक नवीन राजवंश "मौर्य वंश" की स्थापना की।
प्रथम शासक चंद्रगुप्त मौर्य (322 से 298 ईसा पूर्व) -
अपने गुरु चाणक्य की सहायता से अंतिम नंद शासक धनानंद को पराजित कर 25 वर्ष की आयु में चंद्रगुप्त मौर्य मगध के राज सिंहासन पर आरूढ़ हुआ ।चंद्रगुप्त मौर्य ने व्यापक विजय अभियान करके प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। 305 ईसा पूर्व में उसने तत्कालीन यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित किया। संधि हो जाने के बाद सिल्यूकस ने चंद्रगुप्त से 500 हाथी लेकर। पूर्वी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिंधु नदी के पश्चिम का क्षेत्र उसे दे दिया।
उसने (सिल्यूकस) ने अपनी पुत्री का विवाह भी चंद्रगुप्त से कर दिया और मेगस्थनीज को अपने राजदूत के रूप में उसके दरबार में भेजा । चंद्रगुप्त के विशाल साम्राज्य में काबुल , हेरात ,कंधार, बलूचिस्तान, पंजाब ,गंगा का मैदान ,बिहार ,बंगाल ,गुजरात ,विंध्य और कश्मीरके भू -भाग सम्मिलित थे। तमिल ग्रंथ है "अहनानूरु" और "मुरनानुरु" से विदित होता है की चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत पर भी आक्रमण किया था। वृद्धावस्था में उसने भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ले ली । उसने 298 ई.पू. श्रवणबेलगोला (मैसूर ) में उपवास करके अपना शरीर त्याग दिया।
द्वितीय शासक बिंदुसार (298 ईसा पूर्व से 272 ईसा पूर्व) -
बिंदुसार चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे यूनानी लेखक "अमित्रोचेट्स" कहते थे। वायु पुराण में इसे भद्रसार तथा जैन ग्रंथों में सिंहसेन कहा गया है। उसने सुदूरवर्ती दक्षिण भारतीय क्षेत्रों को भी जीतकर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
"दिव्यावदान" के अनुसार इसके शासन काल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए , जिसका दमन करने के लिए अशोक और बाद में सुसीम को भेजा गया। बिंदुसार के राज दरबार में यूनानी शासक एन्टियोकस प्रथम ने डायमेकस नामक व्यक्ति को राजदूत के रूप में नियुक्त किया । प्लिनी के अनुसार मिश्र नरेश फिलाडेल्फस (मेली द्वितीय ) " डियानीसियस" नामक मिस्री राजदूत बिंदुसार के दरबार में भेजा था।
तृतीय शासक अशोक (273 से 232 ईसा पूर्व) -
जैन अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बिंदुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार कर लिया । दक्षिण भारत से प्राप्त मास्की तथा गुज्जरा अभिलेखों में उसका नाम "अशोक" मिलता है ।अभिलेखों में अशोक "देवानांपिय" तथा "देवानांपियदस्सी" उपाधियों से विभूषित हैं। विदिशा की राजकुमारी से अशोक का विवाह हुआ तथा उससे पुत्री (संघमित्रा) और पुत्र ( महेंद्र) का जन्म हुआ ।अशोक के अभिलेखों में उसकी रानी कारूवाकी का उल्लेख मिलता है।
राज्याभिषेक के 7 वर्ष बाद अशोक ने कश्मीर तथा खोतान के अनेक क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिलाया । उसके समय मे मौर्य साम्राज्य में तमिल प्रदेश के अतिरिक्त समूचा भारत और अफगानिस्तान का काफी बड़ा भाग शामिल था । राज्याभिषेक के 8 वें वर्ष (261 ईसा पूर्व) में अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया, जिसमें 100000 लोग मारे गए। हाथी गुंफा अभिलेख के अनुसार यह अनुमान लगाया जाता है कि उस समय कलिंग पर नंदराज शासन कर रहा था। इस व्यापक नरसंहार ने अशोक को विचलित कर दिया, फलतः उसने शस्त्र त्याग की घोषणा कर दी। मगध साम्राज्य के अंतर्गत कलिंग की राजधानी धौलि या तोसाली बनाई गई। श्रमण निग्रोध तथा उपगुप्त के प्रभाव में आकर अशोक बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया और उसने भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष अपना लिया । बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पूर्व "राजतरंगिणी" (कल्हण ) के अनुसार अशोक शिव का उपासक था। बाद में वह गुरु मोग्गलिपुत्रतिस्स के प्रभाव में आ गया। बराबर की पहाड़ियों में अशोक ने आजीविको के निवास हेतु 4 गुहाओ का निर्माण कराया, जिनके नाम थे - सुदामा, चापार ,विश्व झोपड़ी और कर्ण। उसने राज्य अभिषेक के 10 वें वर्ष में बोधगया ,तथा 20 वें वर्ष में लुंबिनी (कपिलवस्तु ) की धम्मयात्रा की । रूम्मनदेई अभिलेख से विदित होता है कि उसने वहां भूमि कर की दर 1/6 से घटाकर 1/8 कर दी थी। अशोक के शिलालेखो में चोल, चेर, पांड्य और केरल सीमावर्ती स्वतंत्र राज्य बताए गए हैं । राज्याभिषेक से संबंधित लघु शिलालेख में अशोक ने स्वयं को बुध्दशाक्य कहा है।
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