मौर्य प्रशासन PDF /नोट्स

मौर्य प्रशासन-
मौर्य काल में भारत ने पहली बार केंद्रीयकृत शासन व्यवस्था की स्थापना हुई। सत्ता का केंद्रीकरण राजा में होते हुए भी वह निरंकुश नहीं होता था। कौटिल्य ने राज्य के सात अंग निर्दिष्ट किए हैं :- राजा ,अमात्य, जनपद,  दुर्ग, कोष, सेना और मित्र । राजा द्वारा मुख्यमंत्री व पुरोहित की नियुक्ति उनके चरित्र की भली - भांति जांच के बाद ही की जाती थी । इस क्रिया को उपधा परीक्षण कहा जाता था ।  ये लोग मंत्रिमंडल के अंतरंग सदस्य थे । मंत्रिमंडल के अतिरिक्त परिशा मंत्रिण: भी होता था, जो एक तरह से मंत्रिप्रसिद्ध था।
केंद्रीय प्रशासन-
अर्थशास्त्र में 18 विभागों का उल्लेख है, जिन्हें "तीर्थ" कहा गया है। ट्रस्ट के अध्यक्ष को "महामात्र" कहा जाता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ थे -  मंत्री , पुरोहित , सेनापति और युवराज।
समाहर्ता-
इसका कार्य राजस्व एकत्र करना, आय-व्यय का ब्यौरा रखना तथा वार्षिक बजट तैयार करना था।
सन्निधाता (कोषाध्यक्षष)-
साम्राज्य के विभिन्न भागों में कोषगृह और अन्नागार बनवाना । अर्थशास्त्र में 26 विभाग अध्यक्षों का उल्लेख है,  जैसे  - कोषाध्यक्ष ,सीताध्यक्ष (कृषि), पण्याध्यक्ष (व्यापार ) , सूत्राध्यक्ष (कताई ,बुनाई ) , लूनाध्यक्ष (बूचड़खाना ) ,विवीताध्यक्ष (चारागाह), लक्षणाध्यक्ष (मुद्रा जारी करना), मुद्राध्यक्ष, पौतवाध्यक्ष, बंधनागाराध्यक्ष, आटविक ( वन विभाग का प्रमुख ) इत्यादि। "युक्त" व "उपयुक्त" महामात्य तथा अध्यक्षों के  नियंत्रण में निम्न स्तर के कर्मचारी होते थे।
प्रांतीय प्रशासन-
अशोक के समय मगध साम्राज्य के 5 प्रांतों का उल्लेख मिलता है  - उत्तरापथ (तक्षशिला ), अवंती राष्ट्र (उज्जयिनी) , कलिंग (तोसली), दक्षिणापथ (सुवर्णगिरी),मध्यदेश ( पाटलिपुत्र ) । प्रांतों का शासन राजवंशीय "कुमार" या "आर्यपुत्र" नामक पदाधिकारीयों द्वारा होता था । प्रांत विषयों में विभक्त थे, जो विषय पतियों के अधीन होते थे। जिले का प्रशासनिक अधिकारी  "स्थानिक" होता था, जो समाहर्ता के अधीन था।  प्रशासन के सबसे छोटी इकाई का मुखिया "गोप" था , जो 10 गांवों का शासन संभालता था।  समाहर्ता के अधीन प्रदेष्टि  नामक अधिकारी  भी होता था, जो स्थानिक, गोप व ग्राम अधिकारीयो के कार्यों की जांच करता था। 
नगर शासन-
मेगस्थनीज के अनुसार नगर का शासन प्रबंध 30 सदस्यों का एक मंडल करता था, जो 6 समितियों में विभक्त था - प्रथम समिति (उद्योग शिल्पो का निरीक्षण), द्वितीय समिति (विदेशियों की देखरेख करना), तृतीय समिति ( जन्म मरण का लेखा-जोखा रखना), चतुर्थ समिति ( व्यापार/ वाणिज्य देखना) , पांचवीं समिति (निर्मित वस्तुओं के विक्रय मूल्य का निरीक्षण करना) और छठी समिति (विक्रय मूल्य का दसवां भाग बिक्री कर के रूप में वसूलना), प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
सैन्य व्यवस्था-
सेना के संगठन हेतु पृथक सैन्य विभाग था, जो 6 समितियों में विभक्त था। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे । यह समितियां सेना के 5 विभागों  की देखरेख करती थी ,यह पांच विभाग थे  - पैदल, अश्व, हाथी ,रथ तथा नौसेना। सैनिक प्रबंध की देखरेख करने वाला अधिकारी "अंतपाल" कहलाता था। सीमांत क्षेत्रों का व्यवस्थापक भी "अंतपाल" होता था।  मेगस्थनीज की पुस्तक (इंडिका)  के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के पास 600000 पैदल, 50000 अश्वारोही , 9000 हाथी  तथा 800 रथो  से सुसज्जित विराट सेना थी।
न्याय व्यवस्था -
सम्राट न्याय प्रशासन  का सर्वोच्च अधिकारी होता था। तथा निचले स्तर पर ग्राम न्यायालय थे, जहां ग्रामणी और ग्राम वृद्ध अपना निर्णय देते थे।  इसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय और जनपद स्तर के न्यायालय होते थे। सबसे ऊपर पाटलिपुत्र का केंद्रीय न्यायालय था। ग्राम संघ और राजा के न्यायालय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायालय दो प्रकार के थे।जो कि निम्नवत् है -
               १. धर्मस्थीय-
                                    इन न्यायलयो में निर्णय का कार्य धर्म शास्त्र के निपुण 3 धर्मस्थ या व्यवहारिक और तीन अमात्य करते थे । धर्मास्थीय एक प्रकार की दीवानी अदालत होती थी। चोरी ,डाके व लूट के मामले, जिन्हें "साहस" कहा गया है ,भी धर्मस्थीय अदालतों में रखे जाते थे। कुवचन , मान - हानि , मारपीट के मामले भी धर्मस्थीय न्यायालय में  ही लाये जाते थे , जिन्हे "वाक् पारूश्य्य" या  उसे "दंड पारुश्य"  कहा गया है।
               २. कंटक शोधन-
                                       यह फौजदारी अदालत थी। तीन प्रदेष्टि तथा तीन अमात्य मिलकर राज्य तथा व्यक्ति के मध्य विवादों का निर्णय करते थे । नगर न्यायधीश के "व्यवहारिक महामात्र" तथा जनपद न्यायाधीश को "राज्जुक" कहते थे । चाणक्य के अनुसार कानून के चार मुख्य अंग है-  धर्म , व्यवहार , चरित्र और शासन ।
मौर्यकालीन समाज-
कौटिल्य का अर्थशास्त्र , मेगस्थनीज कृत इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों से मौर्य काल की सामाजिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है । कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। कौटिल्य ने चार वर्णों के व्यवसाय भी निर्धारित कीए हैं। चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अन्य जातियों , जैसे -  निशाद्,  पारशथ, रथकार , क्षता,  वैदेहिक ,सूत , चांडाल आदि का उल्लेख भी किया है । मेगस्थनीज की "इंडिका" में भारतीय समाज का वर्गीकरण  सात जातियों में किया है -  दार्शनिक, किसान, पशुपालक व शिकारी, कारीगर या  शिल्पी , सैनिक,  निरीक्षक,  सभासद तथा अन्य शासक वर्ग,  मेगस्थनीज ने अपने वर्गीकरण में जाति , वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया है।
                      मौर्य काल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता , फिर भी स्मृति काल  की अपेक्षा वे अधिक अच्छी स्थिति में थी तथा उन्हें पुनर्विवाहनियोग (तलाक)  की अनुमति थी ।

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