वैदिक सभ्यता के विकास क्रम में राजस्थान में जनपदों का उदय देखने को मिलता है । यूनानी आक्रमण के कारण पंजाब के मालव ,शिवि, अर्जुनायन आदि जातियां जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी ,राजस्थान में आई और यहां पर ही निवास करने लगी । इस प्रकार राजस्थान के पूर्वी भाग में जनपदीय शासन व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।
यह प्रमुख चार महाजनपद थे जो निम्न वत है
जांगल प्रदेश -
इनका नाम "कुरु जांगला" और "माद्रेय-जांगला" भी मिलता है । इस जनपद की राजधानी अहिछत्रपुर थी ।जिसे इस समय नागौर कहते हैं । बीकानेर के राजा इसी जांगल देश के स्वामी होने के कारण स्वयं को जांगलधर बादशाह कहते थे । बीकानेर राज्य के राज चिन्ह में भी "जय जंगल धर बादशाह" लिखा मिलता है।
मत्स्य प्रदेश-
वर्तमान में जयपुर के आसपास का क्षेत्र मत्स्य महाजनपद के नाम से जाना जाता था ।
इसका विस्तार चंबल के पास की पहाड़ियों से लेकर सरस्वती नदी के जांगल क्षेत्र तक था । आधुनिक अलवर और भरतपुर की कुछ भू भाग भी इसके अंतर्गत आते थे ।इसकी राजधानी विराटनगरथी जिसे वर्तमान में "बैराठ"नाम से जाना जाता है। मौर्य शासक बिंदुसार से पहले मत्स्य जनपद की स्पष्ट जानकारी का अभाव था ।महाभारत में कहा गया कि शहाज नामक एक राजा ने चेेेेदि तथा मत्स्य दोनों राज्यों पर शासन किया। मत्स्य प्रारंभ में चेदि राज्य का और कालांतर में यह विशाल मगध साम्राज्य का अंग बन गया ।
शूरसेन प्रदेश -
प्राचीन यूनानी लेखक इस राज्य को शूरसेनोई तथा राजधानी को मेथोरा कहते हैं । महाभारत के अनुसार यहां यदु (यादव ) वंश का शासन था ।भरतपुर, धौलपुर तथा करौली जिले के अधिकांश भाग शूरसेन जनपद के अंतर्गत आते थे। अलवर जिले का पूर्वी भाग भी शूरसेन के अंतर्गत आता था। वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण का संबंध इसी जनपद से था।
शिवि प्रदेश -
शिवि जनपद की राजधानी शिवपुर थी । राजा सुशील ने उसे अन्य जातियों के साथ 10 राजाओं के युद्ध में पराजित किया था। प्राचीन शिवपुर की पहचान वर्तमान पाकिस्तान के शोरकोट नामक स्थान से की जाती है । कालांतर में दक्षिणी पंजाब की यह शिवि जाति राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में निवास करने लगी ।
चित्तौड़गढ़ के पास स्थित नगरी इस जनपद की राजधानी थी । मेवाड़ के अनेक स्थानों से शिवियों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। मंदसौर के पास पहुंच पास पांच गुहालेख प्राप्त हुए हैं। जिनसे शिवि जनपद का प्रसार पश्चिम से लेकर दक्षिण पूर्व तक होने का ज्ञान होता है।
गणतंत्र आत्मक शासन प्रणाली के बावजूद इन जनपदों की राजसत्ता कुलीन परिवार के हाथों में ही थी । इन परिवारों के प्रतिनिधि के ही संथागार सभा के प्रमुखो के रूप में शासन की व्यवस्था करते थे ।संथागार के सदस्य निर्धारित विषय पर अपने विचार व्यक्त कर सकते थे। इसे "अनयुविरोध" कहा जाता था ।जो विषय विवाद ग्रस्त होते थे उन पर मतदान कराया जाता था । मतदान में बहुरंगी शलाकाएं काम में ली जाती थी । संथागार जनपदों की सबसे बड़ी संस्था थी। राज्य की नीति के आधारभूत नियमों का निर्धारण इसी सभा में होता था। विशाल गणराज्यों में केंद्रिय संथागार के अलावा प्रांतीय संथागार भी होते थे। कालांतर में गुटबाजी एवं आपसी फूट के कारण इन राज्यों का पतन हुआ । समकालीन राजतंत्रो की विस्तार वादी नीति न्यूनाधिक रूप से इनके पतन के लिए उत्तरदाई थी।
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