ashok ke dhamm ka savrup /ashok ka dhamm pdf (अशोक के धम्म)

अशोक का धम्म (धर्म ) क्या है?
अशोक के धम्म की परिभाषा - 
                           अशोक मनुष्य की नैतिक उन्नति हेतु  जिन आदर्शों का प्रतिपादन किया उन्हें "धम्म" कहा जाता है। अशोक के धम्म की परिभाषा दूसरे तथा सातवें स्तंभ लेख में दी गई है ।

अशोक के धम्म की नीति - 
                                      अशोक के धम्म की मुख्य नीति मनुष्य की नैतिक उन्नति करना है ।नैतिक उन्नति कर अशोक आम लोगो मे जीव मात्र के प्रति दया व करुणा का भाव उत्पन्न करना ही अशोक का मुख्य उद्देश है।
मौर्य सम्राट अशोक के धम्म की विशेषताएं

 उसके अनुसार पाप कर्म से निवृत्ति, विश्वकल्याण, दया,  सत्य एवं कर्म शुद्धि ही धम्म है। साधु स्वभाव होना, कल्याणकारी कार्य करना, पाप रहित होना ,व्यवहार में मृदुता लाना, दया रखना ,दान करना ,शुचिता रखना, प्राणियों का वध न करना, माता-पिता व अन्य बड़ों की आज्ञा मानना ,गुरु के प्रति आदर, मित्रों ,परिचितों, संबंधियों, ब्राह्मणों -श्रमणो के प्रति दान शीलता होना व उचित व्यवहार करना अशोक द्वारा प्रतिपादित धम्म की आवश्यक शर्तें है। तीसरे अभिलेख के अनुसार धम्म में अल्प संग्रह और अल्प व्यय  का भी विधान था। भब्रु शिलालेख के अनुसार अशोक ने बुद्ध की त्रिरत्नों बुद्ध ,धम्म व संघ के प्रति अपनी आस्था प्रकट की।
               सांची ( रायसेन ,मध्य प्रदेश )व    सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) लघु स्तंभ लेख में अशोक ने  कौशांबी तथा  पाटलिपुत्र को आदेश दिया कि संघ मे  फूट डालने वाले भिक्षु भिक्षुणियों बहिष्कृत कर दिया जाए। प्रथम शिलालेख में यह विज्ञप्ति जारी की गयी कि किसी भी यज्ञ के लिए पशुओ का वध न किया जाए।
धम्म यात्रा -
                  अशोक से पूर्व "विहार यात्राएं" की जाती थी । जिनमें राजा पशुओंं का शिकार करते थे । अशोक ने इनके स्थान पर का धम्म  यात्रा का प्रावधान किया , जिसमें बौध्द स्थानों की यात्रा तथा ब्राह्मणों , श्रमणो व वृध्दो  को स्वर्ण दान किया जाता था ।
अनुसंधान।  -
                 अशोक के काल में राज्य के कर्मचारियों - प्रादेशिको राज्जुको और युक्तको के प्रति 5 वें वर्ष धर्म  -प्रचार हेतु यात्रा पर भेजा जाता था, जिसे लेखों में "अनुसंधान"अर्थात् खोज कहा गया है ।
धम महामात्र-
                     राज्य अभिषेक के 14 वें वर्ष में अशोक ने धम्म महामात्रो की नियुक्ति की, जिनके मुख्य कार्य थे -जनता में धम्म का प्रचार करना , उन्हें कल्याणकारी कार्य करने, तथा दान शीलता के लिए प्रोत्साहित करना , कारावास से कैदियों को मुक्त करना या उनकी सजा कम करना,  उनके परिवार की आर्थिक सहायता करना आदि।
अभिलेख-
                अशोक प्रथम शासक था, जिसने अभिलेखों के माध्यम से अपनी प्रजा को संबोधित किया , जिसकी प्रेरणा उसे ईरानी राजा दारा (डेरियस- प्रथम) से मिली थी । अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में है ,जबकि पश्चिम उत्तर भारत ( मन्सेेरा ,शाहबाजगढ़ी ) से प्राप्त उसके अभिलेख खरोष्ठी लिपि में है । टोपरा से दिल्ली लाए गए एक स्तंभ पर  7 लेख एक साथ उत्कीर्णित हैं।  जिसके दूसरे व तीसरे अभिलेख में यवन नरेश आंटियोंकस द्वितीय का उल्लेख है। अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में पहली बार सफलता जेम्स प्रिंसेप को प्राप्त हुई ।
                               तामपर्णी( श्रीलंका ) के राजा तिस्स ने अशोक से प्रभावित होकर देवनांपिय की उपाधि धारण की थी । दूसरे राज्य अभिषेक के अवसर पर उसने अशोक को आमंत्रित भी किया था।  अशोक का पुत्र महेंद्र बोधिवृक्ष  का एक भाग लेकर वहां पहुंचा । यहां से श्रीलंका में बौद्ध धर्म का पदार्पण किया माना जाता है। 40 वर्ष  शासन  करने के बाद 232 ई.पू. में अशोक की मृत्यु हो गई।
अशोक के उत्तराधिकारी तथा मौर्य साम्राज्य का पतन -
           अशोक के बाद अगले 50 वर्ष तक उसके कमजोर उत्तराधिकारियों का शासन रहा। अशोक के बाद कुणाल राजा बना जिसे दिव्यावदान में "धर्म विवर्धन" कहा गया हैं । "राज तरंगिणी " के अनुसार उस समय जलौक कश्मीर का शासक थाा। तारानाथ के अनुसार अशोक का पुत्र वीरसेन गांधार का स्वतंत्र शासक बन गया था। कुणाल के अंधा होने के कारण मगध का प्रशासन उसके पुत्र संप्रत्ति के हाथ में आ गया था। कुणाल के पुत्र दशरथ ने भी मगध पर शासन किया । उसने नागार्जुनी गुफाएं आजीविकों  को दान में दे दी थी ।
        वृहद्रथ अंतिम मौर्य सम्राट था। उसके ब्राह्मण मंत्री पुष्यमित्र शुंग ने उसकी हत्या करके मगध में शुंग वंश के शासन  की  नींव डाली ।
उपयुक्त ब्लॉक में अशोक के धर्म के बारे में जानकारी दी गई है और अशोक के अतिरिक्त जानकारी पाने के लिए वह मौर्य साम्राज्य और काल की जानकारी पाने के लिए नीचे दिए गए मौर्य काल या साम्राज्य के नाम पर क्लिक करें

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morya kal (मौर्य साम्राज्य/काल)

मौर्य वंश / साम्राज्य /काल -
                                          16 महाजनपदों में से एक मगध का एक साम्राज्य के रूप में आविर्भाव हर्यक वंश के समय हुआ और कालांतर में मगध ने प्राय समस्त उत्तर  भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
मौर्य वंश की स्थापना -
                                 ईसा पूर्व 326 ईसवी के लगभग मगध के राज सिंहासन पर नंद वंश का एक विलासी राजा घनानंद  सिंहासन रूढ था । इस समय पश्चिमोत्तर भारत सिकंदर से आक्रांत था। प्रजा अपने राजा के अत्याचारों से पीड़ित भी थी। असहाय कर भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे। इस परिस्थिति में मगध को एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जो विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करें और उसे एक सूत्र में बांधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करें। शीघ्र ही भारत के राजनीतिक नभमंडल  पर कौटिल्य का शिष्य चंद्रगुप्त प्रकट हुआ तथा एक नवीन राजवंश "मौर्य वंश" की स्थापना की।
प्रथम शासक चंद्रगुप्त मौर्य (322 से 298 ईसा पूर्व) -
             अपने गुरु चाणक्य की सहायता से अंतिम नंद शासक धनानंद को पराजित कर 25 वर्ष की आयु में चंद्रगुप्त मौर्य मगध के राज सिंहासन पर आरूढ़ हुआ ।चंद्रगुप्त मौर्य ने व्यापक विजय अभियान करके प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की।  305 ईसा पूर्व में उसने तत्कालीन यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित किया। संधि हो जाने के बाद सिल्यूकस ने चंद्रगुप्त से 500 हाथी लेकर।         पूर्वी अफगानिस्तान,    बलूचिस्तान और सिंधु नदी के पश्चिम का क्षेत्र उसे दे दिया। 
 उसने (सिल्यूकस) ने अपनी पुत्री का विवाह भी  चंद्रगुप्त से कर दिया और मेगस्थनीज को अपने राजदूत के रूप में उसके दरबार में भेजा । चंद्रगुप्त के विशाल साम्राज्य  में काबुलहेरात ,कंधार, बलूचिस्तान, पंजाब ,गंगा का मैदान ,बिहार ,बंगाल ,गुजरात ,विंध्य और कश्मीरके भू -भाग सम्मिलित थे। तमिल ग्रंथ है "अहनानूरु" और  "मुरनानुरु" से विदित होता है की चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत पर भी आक्रमण किया था। वृद्धावस्था में उसने भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ले ली । उसने 298  ई.पू. श्रवणबेलगोला (मैसूर ) में उपवास करके अपना शरीर त्याग दिया।
द्वितीय शासक बिंदुसार (298 ईसा पूर्व से 272 ईसा पूर्व) -
          बिंदुसार चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे यूनानी लेखक "अमित्रोचेट्स"  कहते थे। वायु पुराण में इसे भद्रसार तथा जैन ग्रंथों में सिंहसेन कहा गया है।  उसने सुदूरवर्ती दक्षिण भारतीय क्षेत्रों को भी जीतकर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। 
"दिव्यावदान"  के अनुसार इसके शासन काल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए , जिसका दमन करने के लिए अशोक और बाद में सुसीम  को भेजा गया। बिंदुसार के राज दरबार में यूनानी शासक एन्टियोकस प्रथम ने डायमेकस नामक व्यक्ति को राजदूत के रूप में नियुक्त किया । प्लिनी के अनुसार मिश्र नरेश फिलाडेल्फस (मेली द्वितीय ) " डियानीसियस" नामक मिस्री  राजदूत बिंदुसार के दरबार में भेजा था। 
तृतीय शासक अशोक (273 से 232 ईसा पूर्व) -
                        जैन अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बिंदुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार कर लिया । दक्षिण भारत से प्राप्त मास्की तथा गुज्जरा अभिलेखों में उसका नाम "अशोक" मिलता है ।अभिलेखों में अशोक "देवानांपिय" तथा "देवानांपियदस्सी" उपाधियों से विभूषित हैं।  विदिशा की राजकुमारी से अशोक का विवाह हुआ तथा उससे पुत्री (संघमित्रा) और पुत्र ( महेंद्र) का जन्म हुआ ।अशोक के अभिलेखों में उसकी रानी कारूवाकी का उल्लेख मिलता है।
          राज्याभिषेक के 7 वर्ष बाद अशोक ने कश्मीर तथा खोतान के अनेक क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिलाया । उसके समय मे मौर्य साम्राज्य में तमिल प्रदेश के अतिरिक्त समूचा भारत और अफगानिस्तान का काफी बड़ा भाग शामिल था ।  राज्याभिषेक के 8 वें वर्ष (261 ईसा पूर्व)  में अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया, जिसमें 100000 लोग मारे गए। हाथी गुंफा अभिलेख के अनुसार यह अनुमान लगाया जाता है कि उस समय कलिंग पर नंदराज शासन कर रहा था। इस व्यापक नरसंहार ने अशोक को विचलित कर दिया, फलतः उसने शस्त्र त्याग की घोषणा कर दी।  मगध साम्राज्य के अंतर्गत कलिंग की राजधानी धौलि या तोसाली बनाई गई। श्रमण निग्रोध तथा उपगुप्त के प्रभाव में आकर अशोक बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया और उसने भेरीघोष के स्थान पर धम्मघोष  अपना लिया । बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पूर्व "राजतरंगिणी" (कल्हण ) के अनुसार अशोक शिव का उपासक था। बाद में वह गुरु मोग्गलिपुत्रतिस्स के प्रभाव में आ गया। बराबर की पहाड़ियों में अशोक ने आजीविको के निवास हेतु 4 गुहाओ का निर्माण कराया, जिनके नाम थे -  सुदामा, चापार ,विश्व झोपड़ी और कर्ण। उसने राज्य अभिषेक के 10 वें वर्ष में बोधगया ,तथा 20 वें वर्ष में लुंबिनी (कपिलवस्तु ) की धम्मयात्रा की । रूम्मनदेई अभिलेख से विदित होता है कि उसने वहां भूमि कर की दर 1/6 से घटाकर 1/8 कर दी थी। अशोक के शिलालेखो में चोल, चेर, पांड्य और  केरल सीमावर्ती स्वतंत्र राज्य बताए गए हैं । राज्याभिषेक से संबंधित लघु शिलालेख में अशोक ने स्वयं को बुध्दशाक्य कहा है।
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मौर्य प्रशासन PDF /नोट्स

मौर्य प्रशासन-
मौर्य काल में भारत ने पहली बार केंद्रीयकृत शासन व्यवस्था की स्थापना हुई। सत्ता का केंद्रीकरण राजा में होते हुए भी वह निरंकुश नहीं होता था। कौटिल्य ने राज्य के सात अंग निर्दिष्ट किए हैं :- राजा ,अमात्य, जनपद,  दुर्ग, कोष, सेना और मित्र । राजा द्वारा मुख्यमंत्री व पुरोहित की नियुक्ति उनके चरित्र की भली - भांति जांच के बाद ही की जाती थी । इस क्रिया को उपधा परीक्षण कहा जाता था ।  ये लोग मंत्रिमंडल के अंतरंग सदस्य थे । मंत्रिमंडल के अतिरिक्त परिशा मंत्रिण: भी होता था, जो एक तरह से मंत्रिप्रसिद्ध था।
केंद्रीय प्रशासन-
अर्थशास्त्र में 18 विभागों का उल्लेख है, जिन्हें "तीर्थ" कहा गया है। ट्रस्ट के अध्यक्ष को "महामात्र" कहा जाता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ थे -  मंत्री , पुरोहित , सेनापति और युवराज।
समाहर्ता-
इसका कार्य राजस्व एकत्र करना, आय-व्यय का ब्यौरा रखना तथा वार्षिक बजट तैयार करना था।
सन्निधाता (कोषाध्यक्षष)-
साम्राज्य के विभिन्न भागों में कोषगृह और अन्नागार बनवाना । अर्थशास्त्र में 26 विभाग अध्यक्षों का उल्लेख है,  जैसे  - कोषाध्यक्ष ,सीताध्यक्ष (कृषि), पण्याध्यक्ष (व्यापार ) , सूत्राध्यक्ष (कताई ,बुनाई ) , लूनाध्यक्ष (बूचड़खाना ) ,विवीताध्यक्ष (चारागाह), लक्षणाध्यक्ष (मुद्रा जारी करना), मुद्राध्यक्ष, पौतवाध्यक्ष, बंधनागाराध्यक्ष, आटविक ( वन विभाग का प्रमुख ) इत्यादि। "युक्त" व "उपयुक्त" महामात्य तथा अध्यक्षों के  नियंत्रण में निम्न स्तर के कर्मचारी होते थे।
प्रांतीय प्रशासन-
अशोक के समय मगध साम्राज्य के 5 प्रांतों का उल्लेख मिलता है  - उत्तरापथ (तक्षशिला ), अवंती राष्ट्र (उज्जयिनी) , कलिंग (तोसली), दक्षिणापथ (सुवर्णगिरी),मध्यदेश ( पाटलिपुत्र ) । प्रांतों का शासन राजवंशीय "कुमार" या "आर्यपुत्र" नामक पदाधिकारीयों द्वारा होता था । प्रांत विषयों में विभक्त थे, जो विषय पतियों के अधीन होते थे। जिले का प्रशासनिक अधिकारी  "स्थानिक" होता था, जो समाहर्ता के अधीन था।  प्रशासन के सबसे छोटी इकाई का मुखिया "गोप" था , जो 10 गांवों का शासन संभालता था।  समाहर्ता के अधीन प्रदेष्टि  नामक अधिकारी  भी होता था, जो स्थानिक, गोप व ग्राम अधिकारीयो के कार्यों की जांच करता था। 
नगर शासन-
मेगस्थनीज के अनुसार नगर का शासन प्रबंध 30 सदस्यों का एक मंडल करता था, जो 6 समितियों में विभक्त था - प्रथम समिति (उद्योग शिल्पो का निरीक्षण), द्वितीय समिति (विदेशियों की देखरेख करना), तृतीय समिति ( जन्म मरण का लेखा-जोखा रखना), चतुर्थ समिति ( व्यापार/ वाणिज्य देखना) , पांचवीं समिति (निर्मित वस्तुओं के विक्रय मूल्य का निरीक्षण करना) और छठी समिति (विक्रय मूल्य का दसवां भाग बिक्री कर के रूप में वसूलना), प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
सैन्य व्यवस्था-
सेना के संगठन हेतु पृथक सैन्य विभाग था, जो 6 समितियों में विभक्त था। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे । यह समितियां सेना के 5 विभागों  की देखरेख करती थी ,यह पांच विभाग थे  - पैदल, अश्व, हाथी ,रथ तथा नौसेना। सैनिक प्रबंध की देखरेख करने वाला अधिकारी "अंतपाल" कहलाता था। सीमांत क्षेत्रों का व्यवस्थापक भी "अंतपाल" होता था।  मेगस्थनीज की पुस्तक (इंडिका)  के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य के पास 600000 पैदल, 50000 अश्वारोही , 9000 हाथी  तथा 800 रथो  से सुसज्जित विराट सेना थी।
न्याय व्यवस्था -
सम्राट न्याय प्रशासन  का सर्वोच्च अधिकारी होता था। तथा निचले स्तर पर ग्राम न्यायालय थे, जहां ग्रामणी और ग्राम वृद्ध अपना निर्णय देते थे।  इसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय और जनपद स्तर के न्यायालय होते थे। सबसे ऊपर पाटलिपुत्र का केंद्रीय न्यायालय था। ग्राम संघ और राजा के न्यायालय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायालय दो प्रकार के थे।जो कि निम्नवत् है -
               १. धर्मस्थीय-
                                    इन न्यायलयो में निर्णय का कार्य धर्म शास्त्र के निपुण 3 धर्मस्थ या व्यवहारिक और तीन अमात्य करते थे । धर्मास्थीय एक प्रकार की दीवानी अदालत होती थी। चोरी ,डाके व लूट के मामले, जिन्हें "साहस" कहा गया है ,भी धर्मस्थीय अदालतों में रखे जाते थे। कुवचन , मान - हानि , मारपीट के मामले भी धर्मस्थीय न्यायालय में  ही लाये जाते थे , जिन्हे "वाक् पारूश्य्य" या  उसे "दंड पारुश्य"  कहा गया है।
               २. कंटक शोधन-
                                       यह फौजदारी अदालत थी। तीन प्रदेष्टि तथा तीन अमात्य मिलकर राज्य तथा व्यक्ति के मध्य विवादों का निर्णय करते थे । नगर न्यायधीश के "व्यवहारिक महामात्र" तथा जनपद न्यायाधीश को "राज्जुक" कहते थे । चाणक्य के अनुसार कानून के चार मुख्य अंग है-  धर्म , व्यवहार , चरित्र और शासन ।
मौर्यकालीन समाज-
कौटिल्य का अर्थशास्त्र , मेगस्थनीज कृत इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों से मौर्य काल की सामाजिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है । कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। कौटिल्य ने चार वर्णों के व्यवसाय भी निर्धारित कीए हैं। चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अन्य जातियों , जैसे -  निशाद्,  पारशथ, रथकार , क्षता,  वैदेहिक ,सूत , चांडाल आदि का उल्लेख भी किया है । मेगस्थनीज की "इंडिका" में भारतीय समाज का वर्गीकरण  सात जातियों में किया है -  दार्शनिक, किसान, पशुपालक व शिकारी, कारीगर या  शिल्पी , सैनिक,  निरीक्षक,  सभासद तथा अन्य शासक वर्ग,  मेगस्थनीज ने अपने वर्गीकरण में जाति , वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया है।
                      मौर्य काल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता , फिर भी स्मृति काल  की अपेक्षा वे अधिक अच्छी स्थिति में थी तथा उन्हें पुनर्विवाहनियोग (तलाक)  की अनुमति थी ।

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Rajasthan ke parmukh mahajanpad(राजस्थान के प्रमुख महाजनपद)

राजस्थान के प्रमुख महाजनपद -
                                              वैदिक सभ्यता  के विकास क्रम में राजस्थान में जनपदों का उदय देखने को मिलता है । यूनानी आक्रमण के कारण पंजाब के मालव ,शिवि, अर्जुनायन आदि जातियां जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी ,राजस्थान में आई और यहां पर ही निवास करने लगी । इस प्रकार राजस्थान के पूर्वी भाग में जनपदीय शासन व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।
यह प्रमुख चार महाजनपद थे जो निम्न वत है
जांगल प्रदेश -
                   वर्तमान बीकानेर और जोधपुर के जिले महाभारत काल में जांगल देश कहलाते थे। कहीं कहीं 
इनका नाम "कुरु जांगला" और "माद्रेय-जांगला" भी मिलता है । इस जनपद की राजधानी  अहिछत्रपुर थी ।जिसे इस समय नागौर कहते हैं । बीकानेर के राजा इसी जांगल देश के  स्वामी  होने के कारण स्वयं को जांगलधर बादशाह कहते थे । बीकानेर राज्य के राज चिन्ह में भी "जय जंगल धर बादशाह" लिखा मिलता है।
मत्स्य प्रदेश-
                   वर्तमान में जयपुर के आसपास का क्षेत्र मत्स्य महाजनपद के नाम से जाना जाता था । 
इसका विस्तार चंबल के पास की पहाड़ियों से लेकर सरस्वती नदी के जांगल क्षेत्र तक था । आधुनिक अलवर और भरतपुर की कुछ भू भाग भी इसके अंतर्गत आते थे ।इसकी राजधानी विराटनगरथी जिसे वर्तमान में "बैराठ"नाम से जाना जाता है। मौर्य शासक बिंदुसार से पहले मत्स्य जनपद की स्पष्ट जानकारी का अभाव था ।महाभारत में कहा गया कि शहाज नामक एक राजा ने  चेेेेदि तथा मत्स्य दोनों राज्यों पर शासन किया। मत्स्य प्रारंभ  में चेदि राज्य का और कालांतर में यह विशाल मगध साम्राज्य का अंग बन गया ।
शूरसेन प्रदेश -
                    आधुनिक ब्रज क्षेत्र में यह महाजनपद स्थित था । इसकी राजधानी मथुरा थी।
 प्राचीन यूनानी लेखक इस राज्य को शूरसेनोई तथा राजधानी को  मेथोरा कहते हैं । महाभारत के अनुसार यहां यदु (यादव ) वंश का शासन था ।भरतपुर, धौलपुर तथा करौली जिले के अधिकांश भाग शूरसेन जनपद के अंतर्गत आते थे। अलवर जिले का पूर्वी भाग भी शूरसेन के अंतर्गत आता था। वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण का संबंध इसी जनपद से था।
शिवि प्रदेश -
                  शिवि जनपद की राजधानी शिवपुर थी । राजा सुशील ने उसे अन्य जातियों के साथ 10 राजाओं  के युद्ध में पराजित किया था।  प्राचीन शिवपुर की पहचान वर्तमान पाकिस्तान  के शोरकोट नामक स्थान से की जाती है । कालांतर में दक्षिणी पंजाब की यह शिवि जाति राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में निवास करने लगी ।             
          चित्तौड़गढ़ के पास स्थित नगरी इस जनपद की राजधानी थी । मेवाड़ के अनेक स्थानों से शिवियों के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। मंदसौर के पास पहुंच पास  पांच गुहालेख प्राप्त हुए हैं। जिनसे शिवि जनपद का प्रसार पश्चिम से लेकर दक्षिण पूर्व तक होने का ज्ञान होता है।
                    गणतंत्र आत्मक शासन प्रणाली के बावजूद इन जनपदों की राजसत्ता कुलीन परिवार के हाथों में ही थी । इन परिवारों के प्रतिनिधि के ही संथागार सभा के प्रमुखो के रूप में शासन की व्यवस्था करते थे ।संथागार के सदस्य निर्धारित विषय पर अपने विचार व्यक्त कर सकते थे। इसे "अनयुविरोध" कहा जाता था ।जो विषय विवाद ग्रस्त होते थे उन पर मतदान कराया जाता था । मतदान में बहुरंगी शलाकाएं काम में ली जाती थी । संथागार जनपदों की सबसे बड़ी संस्था थी। राज्य की नीति के आधारभूत नियमों का निर्धारण इसी सभा में होता था। विशाल गणराज्यों में केंद्रिय संथागार के अलावा प्रांतीय संथागार भी होते थे। कालांतर में गुटबाजी एवं आपसी फूट के कारण इन राज्यों का पतन हुआ समकालीन राजतंत्रो की विस्तार वादी नीति न्यूनाधिक रूप से इनके पतन के लिए उत्तरदाई थी।

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भाषा और लिपि का परिचय और अंतर कक्षा 12 pdf

संसार में संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी , बांग्ला , गुजराती , उर्दू,  मलयालम ,पंजाबी ,उड़िया, जर्मन  , इतालवी , चीनी जैसी अनेक भाषाएं हैं ।भारत अ...